रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनंद’। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे ‘रस’ कहते है।
रस को काव्य की आत्मा या प्राण तत्व माना जाता है।
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रस के अवयव या अंग कितने है?
रस के चार अवयव या अंग है
- स्थायी भाव
- विभाव
- अनुभाव और
- संचारी(व्यभिचारी) भाव
स्थायी भाव
स्थायी भाव का मतलब है प्रधान (मुख्य) भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। काव्य या नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से अंत तक होता है। स्थायी भावो की संख्या 9 मानी गयी है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है इसलिए रसो की संख्या 9 है। जिन्हे नवरस भी कहा जाता है बाद में आचार्यों ने २ और भावों (वात्सल्य व भगवद विषयक रति) को स्थायी भाव की मान्यता दी इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या ११ तक पहुंच जाती है और तदनुरूप रसों की संख्या भी ११ तक पहुंच जाती है।
विभाव
स्थायी भाव के उदबोधक कारण को विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते है।
- आलम्बन विभाव
- उद्दीपन विभाव
आलम्बन विभाव
जिसका आलम्बन या सहारा पाकर स्थायी भाव जागते है आलम्बन विभाव कहलाता है ।
जैसे : नायक नायिका
आलम्बन विभाव के दो पक्ष होते हैं।
- आश्रयालम्बन और
- विषयालम्बन
जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालम्बन और जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालम्बन कहलाता है।
उदाहरण : यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे तथा सीता विषय।
उद्दीपन विभाव
जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है उद्दीपन विभाव कहलाता है।
जैसे : चाँदनी, एकांत स्थल, रमणीक स्थान आदि।
अनुभाव
मनोगत भाव को व्यक्त करने वाले शरीर विकार अनुभव कहलाते है। अनुभवों की संख्या ८ मानी गयी है।
- स्तभ
- स्वेद
- रोमांच
- स्वर-भंग
- कम्प
- विवर्णता(रंगहीनता)
- अश्रु
- प्रलय (संज्ञाहीनता)
संचारी/व्यभिचारी भाव
मन में संचरण करने वाले भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते है। संचारी भावों की संख्या ३३ मानी गयी है।
1 | हर्ष | 18 | निर्वेद |
2 | विषाद | 19 | धृति |
3 | त्रास (भय/व्याग्रता) | 20 | मति |
4 | लज्जा | 21 | बिबोध |
5 | ग्लानि | 22 | वितर्क |
6 | चिंता | 23 | श्रम |
7 | शंका | 24 | आलस्य |
8 | असूया | 25 | निद्रा |
9 | अमर्ष | 26 | स्वप्न |
10 | मोह | 27 | स्मृति |
11 | गर्व | 28 | मद |
12 | उत्सुकता | 29 | उन्माद |
13 | उग्रता | 30 | अवहित्था |
14 | चपलत | 31 | अपस्मार |
15 | दीनता | 32 | व्याधि |
16 | जड़ता | 33 | मरण |
17 | आवेग |
रस के प्रकार
जैसा की ऊपर दिया गया है कि रसों की संख्या कुल ११ है।
1. श्रृंगार रस क्या है
श्रृंगार रस का स्थाई भाव रति होता है। नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस कि अवस्था में पहुँच जाता है तो वह श्रृंगार रस कहलाता है। इसके अंतर्गत सौन्दर्य, प्रकृति, सुन्दर वन, वसंत ऋतु, पक्षियों का चहचहाना आदि के बारे में वर्णन किया जाता है।
श्रृंगार रस का उदाहरण
तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
झके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये।।
श्रृंगार रस के दो भेद है:
- संयोग श्रृंगार
- वियोग श्रृंगार
संयोग श्रृंगार रस
जब नायक नायिका के परस्पर मिलन, स्पर्श, आलिंगन, वार्तालाप आदि का वर्णन होता है तब वहां पर संयोग श्रृंगार रस होता है।
संयोग श्रृंगार रस का उदाहरण
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय,
सौंह करे भौंहन हंसे देन कहे नटि जाय!!
वियोग श्रृंगार रस
जहां पर नायक-नायिका का परस्पर प्रबल प्रेम हो लेकिन मिलन न हो अर्थात नायक-नायिका के वियोग का वर्णन हो वहां पर वियोग रस होता है।
संयोग श्रृंगार रस और वियोग श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति होता है।
वियोग श्रृंगार रस का उदाहरण
उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
इन्द्री सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
2. हास्य रस क्या है
जहाँ पर किसी विचित्र स्थितियों या परिस्थितियों के कारण हास्य की उत्पत्ति होती है उसे हास्य रस कहा जाता है । हास्य रस स्थायी भाव हास होता हैं । हास्य रस के अन्तर्गत वाणी वेशभूषा, आदि की विकृति को देखकर मन में जो विनोद का भाव उत्पन्न होता है उससे हास की उत्पत्ति होती है, इसे ही हास्य रस कहा जाता है ।
भरतमुनि ने कहा है कि- दूसरों की चेष्टा से अनुकरण से ‘हास’ उत्पन्न होता है, तथा यह स्मित, हास एवं अतिहसित के द्वारा व्यंजित होता है “स्मितहासातिहसितैरभिनेय:।” भरत ने त्रिविध हास का जो उल्लेख किया है, उसे ‘हास’ स्थायी के भेद नहीं समझना चाहिए।
पण्डितराज का कथन है – ‘जिसकी, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने आदि से, उत्पत्ति होती है और जिसका नाम खिल जाना है, उसे ‘हास’ कहते हैं।”
तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप,
साज मिले पंद्रह मिनट, घंटा भर अलाप।
घंटा भर अलाप, राग में मारा गोता,
धीरे-धीरे खिसक चुके थे सरे श्रोता।
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